कबीर के बारे में बहुत भ्रामक बातें साहित्य में और इंटरनेट पर भर दी गई हैं. अज्ञान फैलाने वाले कई आलेख कबीरधर्म में आस्था, विश्वास
और श्रद्धा रखने वालों के मन को ठेस पहुँचाते हैं. यह कहा जाता है कि कबीर
किसी विधवा ब्राह्मणी (किसी चरित्रहीन ब्राह्मण) की संतान थे. ऐसे आलेखों
से कबीरधर्म के अनुयायियों की सख्त असहमति स्वाभाविक है क्योंकि कबीर ऐसा
विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूत, जातिवाद, धार्मिक आडंबरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है.
कबीर जुलाहा परिवार से हैं. कबीर ने स्वयं लिखा है कि ‘कहत कबीर कोरी’. यह कोरी-कोली समाज कपड़ा बनाने का कार्य करता रहा है. स्पष्ट है कि कबीर उस कोरी परिवार (मेघवंश) में
जन्मे थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी और गुलामी से पीड़ित था और नरक से
निकलने के लिए उसने इस्लाम अपनाया था. यही कारण है कि जुलाहों के वंशज या
भारत के मूलनिवासी स्वाभाविक ही कबीर के साथ जुड़े हैं और कई कबीरपंथी
कहलाना पसंद करते हैं.
आज के भारत में देखें तो भारत के मूलनिवासियों को कबीर से कोई परहेज़ नहीं. हाँ, ब्राह्मणवादी अन्य लोग कबीर का मूल साहित्य पढ़ कर उलझन में पड़ जाते हैं.
चमत्कारों, रोचक और भयानक कथाओं से परे कबीर का सादा-सा चमकदार जीवन इस प्रकार है:-
कबीर का जीवन
बुद्ध के बाद कबीर भारत के महानतम धार्मिक व्यक्तित्व हैं. वे संतमत के प्रवर्तक और सुरत-शब्द योग के सिद्ध हैं. वे तत्त्वज्ञानी हैं. एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं. अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे महत्व नहीं देते हैं. भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति की चर्चा कबीर की चर्चा के बिना अधूरी होती है.
उनका परिवार कोरी जाति से था जो हिंदुओं की जातिप्रथा के कारण हुए अत्याचारों से तंग आकर मुस्लिम बना था. कबीर को नूर अली और नीमा नामक दंपति ने जन्म दिया था. नीमा ने कबीर को लहरतारा के पास सन् 1398 में जन्म दिया था (कुछ वर्ष पूर्व इसे सन् 1440 में निर्धारित किया गया है). बहुत अच्छे धार्मिक वातावरण में उनका पालन-पोषण हुआ.
युवावस्था
में उनका विवाह लोई (जिसे कबीर के अनुयायी माता लोई कहते हैं) से हुआ
जिसने सारा जीवन इस्लाम के उसूलों के अनुसार पति की सेवा में व्यतीत कर
दिया. उनकी दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं. कमाली की गणना
भारतीय महिला संतों में होती है.
संतमत की तकनीकी शब्दावली में 'नारी' का
अर्थ 'कामना' या 'इच्छा' रहा है. लेकिन मूर्ख पंडितों ने कुछ दोहों के
आधार पर या उनमें हेरा-फेरी कर के कबीर को नारी विरोधी घोषित कर दिया. कबीर
हर प्रकार से नारी जाति के साथ चलने वाले सिद्ध होते हैं. उन्होंने
संन्यास लेने तक की बात कहीं नहीं की. वे सफलतापूर्वक गृहस्थ में रहे सत्पुरुष थे और गृहस्थ नारी के बिना नहीं होता.
कबीर स्वयंसिद्ध ज्ञानी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियों में सहज ही उच्च स्वरूप ग्रहण कर गया. वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह
किये बिना खरी बात कहते हैं. मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव
ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी में व्याप्त
जातिवाद के अज्ञान, रूढ़िवाद
तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया. कबीर ने जातिवाद के विरुद्ध कोई
जन-आंदोलन खड़ा नहीं किया लेकिन उसकी भूमिका तैयार कर दी. वे आध्यात्मिकता
से भरे हैं और जुझारू सामाजिक-धार्मिक नेता हैं.
कबीर
भारत के मूनिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. ब्राह्मणवादियों और
पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की
वाणी का कई जगह रूप बिगाड़ दिया है और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़
किया है. आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है
तथापि उनकी बहुत सी मूल वाणी को विभिन्न कबीरपंथी संगठनों ने प्रकाशित किया
है और बचाया है. कबीर की साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी
देखी जा सकती है. साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है. जनश्रुतियों
से ज्ञात होता है कि कबीर ने भक्तों-फकीरों का सत्संग किया और उनकी अच्छी बातों को हृदयंगम किया.
कबीर ने सारी आयु कपड़ा बनाने का कड़ा परिश्रम करके परिवार को पाला. कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया. सन् 1518 में कबीर ने देह त्याग किया.
उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-
(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमे, सोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमो, न कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसी, न कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन में, न आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा सोहं शक्ति, निराकार से पारा हो
शब्द अतीत अटल अविनाशी, क्षर अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप निरंजन नाहीं, ना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन पवन न पानी, न रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहीं, सत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहब, परखो परखनहारा हो
(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में, न मूरत में, न एकांत निवास में
न मंदिर में, न मस्जिद में, न काशी कैलाश में
न मैं जप में, न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहता, नहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँ, एक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में
कबीर की गहरी जड़ें
कबीर
को सदियों साहित्य से दूर रखा गया. ताकि उनका कहा सच लोगों विशेषकर युवाओं
तक न पहुँचे. लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर की पृष्ठभूमि में धर्म
की एक समृद्ध परंपरा थी जो हिंदू, विशेषकर ब्राह्मणवादी, परंपरा से अलग थी
और कि भारत के सनातन धर्म वास्तव में जैन और बौध धर्म हैं. कबीरधर्म, ईसाईधर्म
तथा इस्लामधर्म के मूल में बौधधर्म का मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है. यह
आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है. उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है
कि कबीर अपनी इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद भारत के मूलनिवासियों के हृदय
में बसते चले गए जैसे बुद्ध.
चमड़ा
पहनने वाली आर्य नामक यूरेशियन जनजाति ने भारत के मूलनिवासियौं को युद्ध
में पराजित किया और बाद में सदियों की लड़ाई के बाद जुझारू मूलनिवासियों को
गरीबी में धकेल कर उन्हें ‘नाग’, 'राक्षस' और ‘असुर’ का
नाम दिया. उपलब्ध जानकारी के अनुसार हडप्पा सभ्यता से संबंधित ये लोग
कपड़ा बनाने की कला जानते थे. यही लोग आगे चल कर विभिन्न जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों और नामों (आज के SCs, STs, OBCs) आदि
में बाँट दिए गए ताकि इनमें एकता स्थापित न हो. कबीर भी इसी समूह से हैं.
इन्होंने ऐसी धर्म सिंचित वैचारिक क्रांति को जन्म दिया कि शिक्षा पर
एकाधिकार रखने वाले तत्कालीन भयभीत पंडितों ने उन्हें साहित्य से दूर रखने
में सारी शक्ति लगा दी.
कबीर का विशेष कार्य - निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ है फूँक मार कर उड़ा देना. भारत के सनातन धर्म अर्थात् ‘बौधधर्म’ में इस शब्द का प्रयोग एक तकनीकी शब्द के तौर पर हुआ
है. मोटे तौर पर इसका अर्थ है- 'मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और
मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न
देना'. दूसरे शब्दों में दुनियावी दुखों का मूल कारण ‘संस्कार’ (impressions and suggestions imprinted on mind) है जिससे
मुक्ति का नाम निर्वाण है. इन संस्कारों में कर्म फिलॉसफी आधारित
पुनर्जन्म का एक सिद्धांत भी है जो ब्राह्मणवाद की देन है. भारत के
मूलनिवासियों को जातियों में बाँट कर गरीबी में धकेला गया और शिक्षा से भी
दूर कर दिया गया. ब्राह्मणवाद द्वारा किए गए पापों और कुकर्मों को नकली
कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म के सिद्धांत से ढँक दिया गया ताकि उनके
कुकर्मों की ओर कोई उँगली न उठे तथा लोग अपने पिछले जन्म और कर्मों को ही
कोसते रहें और ब्राह्मणवादी व्यवस्था चलती रहे. वास्तविकता यह है कि संतमत
के अनुसार ‘निर्वाण’ का मतलब है- ‘कर्म फिलॉसफी’ और ‘पुनर्जन्म’ के विचार से छुटकारा. ये विचार अत्याचार और ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष में बाधक रहे हैं.
कबीर का आवागमन से निकलने की बात करना यही प्रमाणित करता है कि पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति संभव है और उसी में भलाई है. भारत का सनातन तत्त्वज्ञान दर्शन (चेतन तत्त्व सहित अन्य तत्त्वों की जानकारी) कहता है कि जो भी है अभी है और इसी क्षण में है. बुद्ध और कबीर ‘अब’ और ‘यहीं’ की
बात करते हैं. जन्मों की नहीं. इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं
जिन्होंने ब्राह्मणवादी संस्कारों के सूक्ष्म जाल को काट डाला. वे चतुर
ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैं, सदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैं.....और ‘जय कबीर - धन्य कबीर’ कहना इस भाव का सिंहनाद है कि ब्राह्मणवाद से मुक्ति ही कल्याण का मार्ग है.
अब क्या हो?
‘कबीर-ज्ञान दिवस’ निर्धारित
करना चाहिए. यह दिन अक्तूबर-नवंबर में देसी महीने की नवमी के दिन रखें.
फिर किसी ज्ञानी, पंडित या ज्योतिषी की न सुनें. जो सज्जन कबीर को इष्ट के
रूप में देखते हैं उन्हें चाहिए कि कबीर को जन्म-मरण से परे और कर्मों से
अलग माने. कबीर के साथ सत्गुरु (सत्ज्ञान) शब्द का प्रयोग करें या केवल कबीर लिखें. कबीर आस्था का केंद्र हैं. उनके ज्ञान का सम्मान करें.
कबीर
के गुरु कौन थे यह जानना कतई ज़रूरी नहीं है. वैसे आपकी जानकारी में होना
चाहिए कि रामानंद नाम का ब्राह्मण उनका समकालीन नहीं था अतः उनका गुरु नहीं
हो सकता. कबीर के ज्ञान पर ध्यान रखें. उनके जीवन संघर्ष पर ध्यान
केंद्रित करें. उन्होंने सामाजिक, धार्मिक
तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को कैसे काटा और अपनी तथा मूलनिवासी भारतीय
समुदायो की एकता और स्वतंत्रता का मार्ग कैसे प्रशस्त किया, यह देखें.
कबीर की छवि पर छींटे
यह
तथ्य है कि कबीर के पुरखे इस्लाम अपना चुके थे. इसलिए कबीर के संदर्भ में
या उनकी वाणी में जहाँ कहीं हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू आचार्यों का
उल्लेख आता है उसे संदेह की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. पिछले दिनों कबीर
के जीवन पर बनी एक एनिमेटिड फिल्म देखी जिसमें विष्णु-लक्ष्मी की कथा को
शरारतपूर्ण तरीके से जोड़ा गया था. कहाँ इस्लाम में पले-बढ़े कबीर और कहाँ
विष्णु-लक्ष्मी का मिथ. यह कबीरधर्म की मानवीय छवि पर गंदा पंडितवादी रंग
चढ़ाने जैसा है. ऐसा करना ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति के नंगे विज्ञापन का
कार्य करता है. ज़ाहिर है कि धर्म के नाम पर भारत के मूलनिवासियों के
आर्थिक स्रोतों को सोखा जा रहा है. कबीर के जीवन को कई प्रकार के रहस्यों
से ढँक कर यह कवायद की जाती है ताकि उसके अनुयायियों की संख्या को बढ़ने से
रोका जाए और दलितों के धन को कबीर द्वारा प्रतिपादित कबीरधर्म, दलितों की गुरुगद्दियों-डेरों आदि की ओर जाने से रोका जाए. इसी प्रयोजन से यूरेशियन ब्रह्मणों ने कबीर के नाम पर देश-विदेश में कई दुकानें खोली हैं.
कबीरधर्म
को कमज़ोर करने के लिए स्वार्थी तत्त्व आज भी इस बात पर बहस करते हैं कि
कबीर लहरतारा तालाब के किनारे मिले या गंगा के तट पर. उनके जन्मदिन पर
चर्चा की जाती है. कबीर के गुरु पर विवाद होता है. रामानंद नामी ब्राह्मण
को उनके गुरु के रूप में खड़ा कर दिया गया. कबीर को ही नहीं अन्य कई
मूलनिवासी समुदायों के संतों को रामानंद का शिष्य सिद्ध करने के लिए
साहित्य के साथ बेइमानी की गई. कबीर सहित उनमें से कई तो रामानंद के समय
में थे ही नहीं. तथ्य यह है कि रामानंद के जन्मदिन पर भी विवाद है. इसके लिए सिखी विकि में यहाँ (पैरा 4) देखें (Retrieved on 02-07-2011). उस
कथा के इतने वर्शन हैं कि उस पर अविश्वास सहज हो जाता है. कबीर बहुत
धार्मिक माता-पिता नूर अली और नीमा के घर पैदा हुए इसमें कोई संदेह नहीं.
अन्य कहानियाँ कुत्सित मानसिकता ने बनाई हैं. हमें संदेह नहीं होना चाहिए
कि कबीर नूर अली और नीमा की ही संतान थे और उनके जन्म की शेष कहानियाँ
ब्राह्मणवादी बकवास है.
डॉ
अंबेडकर स्वयं कबीरधर्मी परिवार से थे और कबीर उनके प्रेरणास्रोत थे. उनके
कारण ही धर्म-चक्र और सत्ता-चक्र सही दिशा में घूमने लगा है.
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