मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।
साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।
कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाए
वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥
अर्थात चिंता ऐसी डाकिनी है, जो कलेजे को भी काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। वे कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो। इसमें से न धुआं निकलती है और न वह किसी को दिखाई देती है। इस आग को वही पहचान सकता है, जो खुद इस से हो कर गुजरा हो।
आगि जो लगी समुद्र में, धुआं न प्रगट होए।
की जाने जो जरि मुवा, जाकी लाई होय।।
फिर इससे बचने का उपाय क्या है? मन को चिंता रहित कैसे किया जाए? कबीर कहते हैं, सुमिरन करो यानी ईश्वर के बारे में सोचो और अपने बारे में सोचना छोड़ दो। या खुद नहीं कर सकते तो उसे गुरु के जिम्मे छोड़ दो। तुम्हारे हित-अहित की चिंता गुरु कर लेंगे। तुम बस चिंता मुक्त हो कर ईश्वर का स्मरण करो। और जब तुम ऐसा करोगे, तो तुरत महसूस करोगे कि सारे कष्ट दूर हो गए हैं।
लेकिन कबीर प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी बनने का उपदेश देते हैं। कहते हैं :
करु बहियां बल आपनी, छोड़ बिरानी आस।
जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।
अर्थात मनुष्य को अपने आप ही मुक्ति के रास्ते पर चलना चाहिए। कर्म कांड और पुरोहितों के चक्कर में न पड़ो। तुम्हारे मन के आंगन में ही आनंद की नदी बह रही है, तुम प्यास से क्यों मर रहे हो? इसलिए कि कोई पंडित आ कर बताए कि यहां से जल पी कर प्यास बुझा लो। इसकी जरूरत नहीं है। तुम कोशिश करो तो खुद ही इस नदी को पहचान लोगे।
कबीर एक उपाय और बताते हैं, कहते हैं कि सुखी और स्वस्थ रहना है तो अतियों से बचो। किसी चीज की अधिकता ठीक नहीं होती। इसीलिए कहते हैं :
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
इस चंचल मन के स्वभाव की विवेचना करते हुए कबीर कहते हैं, यह मन लोभी और मूर्ख हैै। यह तो अपना ही हित-अहित नहीं समझ पाता। इसलिए इस मन को विचार रूपी अंकुश से वश में रखो, ताकि यह विष की बेल में लिपट जाने के बदले अमृत फल को खाना सीखे।
कबिरा यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।
कबिरा मन ही गयंद है, आंकुष दे दे राखु ।
विष की बेली परिहरी, अमरित का फल चाखु ।।
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।
साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।
कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
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मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय॥
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि॥
कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
एक तरफ हिंदू हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते.
कंकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लियो बनाए।
ता चढ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदा॥
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।
साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।
कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाए
वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥
अर्थात चिंता ऐसी डाकिनी है, जो कलेजे को भी काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। वे कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो। इसमें से न धुआं निकलती है और न वह किसी को दिखाई देती है। इस आग को वही पहचान सकता है, जो खुद इस से हो कर गुजरा हो।
आगि जो लगी समुद्र में, धुआं न प्रगट होए।
की जाने जो जरि मुवा, जाकी लाई होय।।
फिर इससे बचने का उपाय क्या है? मन को चिंता रहित कैसे किया जाए? कबीर कहते हैं, सुमिरन करो यानी ईश्वर के बारे में सोचो और अपने बारे में सोचना छोड़ दो। या खुद नहीं कर सकते तो उसे गुरु के जिम्मे छोड़ दो। तुम्हारे हित-अहित की चिंता गुरु कर लेंगे। तुम बस चिंता मुक्त हो कर ईश्वर का स्मरण करो। और जब तुम ऐसा करोगे, तो तुरत महसूस करोगे कि सारे कष्ट दूर हो गए हैं।
लेकिन कबीर प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी बनने का उपदेश देते हैं। कहते हैं :
करु बहियां बल आपनी, छोड़ बिरानी आस।
जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।
अर्थात मनुष्य को अपने आप ही मुक्ति के रास्ते पर चलना चाहिए। कर्म कांड और पुरोहितों के चक्कर में न पड़ो। तुम्हारे मन के आंगन में ही आनंद की नदी बह रही है, तुम प्यास से क्यों मर रहे हो? इसलिए कि कोई पंडित आ कर बताए कि यहां से जल पी कर प्यास बुझा लो। इसकी जरूरत नहीं है। तुम कोशिश करो तो खुद ही इस नदी को पहचान लोगे।
कबीर एक उपाय और बताते हैं, कहते हैं कि सुखी और स्वस्थ रहना है तो अतियों से बचो। किसी चीज की अधिकता ठीक नहीं होती। इसीलिए कहते हैं :
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
इस चंचल मन के स्वभाव की विवेचना करते हुए कबीर कहते हैं, यह मन लोभी और मूर्ख हैै। यह तो अपना ही हित-अहित नहीं समझ पाता। इसलिए इस मन को विचार रूपी अंकुश से वश में रखो, ताकि यह विष की बेल में लिपट जाने के बदले अमृत फल को खाना सीखे।
कबिरा यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।
कबिरा मन ही गयंद है, आंकुष दे दे राखु ।
विष की बेली परिहरी, अमरित का फल चाखु ।।
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।
साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।
कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
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मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय॥
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि॥
कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
एक तरफ हिंदू हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते.
कंकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लियो बनाए।
ता चढ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदा॥
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